फिल्म: एड़मिशन ओपनपात्र: अनुपम खेर, आशीष विद्यार्थी, अंकुर खन्ना, प्रमोद माउथो, रति अग्निहोत्री, सुदेश बेरी, मास्टर अभिषेक शर्मानिर्देशन: के. डी. सत्यमनिर्माता: अमन फिल्म प्रोडक्शनसंगीत: अमित त्रिवेदीरेटिंग :
शिक्षा के क्षेत्र में सरकार के सुधारों को देखते हुए बॉलीवुड ने फिल्म निर्माण की पहल की है। यह भारत का दुर्भाग्य ही रहा है कि थ्री इडियट से पहले किसी फिल्म ने शिक्षा के मसले को बड़े पर्दे पर चित्रित नहीं किया। इस मामले पर एड़मिशन ओपन नाम की फिल्म ने इस मामले को उठाया है।
यह उन फिल्मों में से एक है जो कि यह बात सोचने पर विवश करती है कि आखिर निर्देशक ने यह फिल्म क्यों बनाई। इस फिल्म में पैसे के पीछे भागती शिक्षा प्रणाली पर एक करारा व्यंग्य है। फिल्म इस बात पर जोर डालती है कि हालिया शिक्षा प्रणाली में धनरहित योग्यता के लिए कोई संवेदना नहीं है।
तारिक सिद्दिकी यानि अनुपम खेर आधुनिक विचारधारा वाला एक कॉलेज खोलना चाहता है। वह चाहता है इस कॉलेज के माध्यम से परंपरागत शिक्षा पद्वति की बुराईयों पर काबू पाना चाहता है। वह मानता है कि ट्रेडिशनल एजुकेशन सिस्टम उसकी बेटे की मौत का कारण है। उसकी पत्नि राधिका (रति अग्निहोत्री) भी बेटे के गम में काल की शिकार बन जाती है। इसी बीच देवांग त्रिपाठी (आशीष विद्यार्थी) तारिक के कंधे से कंधा मिलाता है। देवांग मुम्बई यूनिवर्सिटी में शिक्षक था और उसे एल्कोहल लेने और अमूर्त तरीके से पढ़ाने के कारण यूनिवर्सिटी से निकाल दिया गया था।
इस बीच स्पिरिट नाम का कॉलेज उन सभी विद्यार्थियों को एडमिशन दे देता है जिनका किसी प्रतिष्ठित संस्थान में प्रवेश नहीं हुआ था। स्पिरिट को एनएसी से मान्यता नहीं मिलती है।
अंकुर खन्ना (अर्जुन) उन छात्रों में से एक है जो कि तारिक के सपनों को पूरा करने की लालसा रखता है पर तारिक की अचानक मौत हो जाती है। फिल्म में अब दो सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या कॉलेज को मान्यता मिल पाएगी और क्या विद्यर्थियों का भविष्य उज्जवल होगा।
फिल्म कई बार वास्तविकता से पर लगती है इसलिए इसे आसानी से नहीं समझा जा सकता है। फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसमें हंसने-हंसाने की लुफ्त नहीं मिल पाता है । साथ ही काफी लम्बे समय तक खिंचने के कारण यह थोड़ी बोझिल भी हो जाती है। फिल्म का कहानी लेखन स्तरीय है। संवाद अदायगी में हास्य का थोड़ा बहुत पुट है लेकिन यह प्रभावहीन हैं। इसका संपादन और छायांकन भी गुणवत्तापूर्ण नहीं है।
अनुपम खेर यहां हमेशा की तरह चमत्कारिक प्रदर्शन करने में सफल रहे हैं। यहां तारिक की मौत से दर्शक असमंजस की स्थिति में रहते हैं। आशीष विद्यार्थी अपनी भूमिका से न्याय करने में सफल रहे हैं। विद्यार्थी के रूप में अंकुर खन्ना और मास्टर अभिषेक शर्मा का अभिनय भी ज्यादा प्रभावी नहीं रहा है। कुल मिलाकर एड़मिशन ओपन को देखने के लिए सिफारिश नहीं की जा सकती
Kites review: प्रेम की डोर से बंधी काइट्स
रेटिंग -
फिल्म समीक्षा : काइट्स
निर्देशक : अनुराग बसु
निर्माता: राकेश रोशन
कलाकार : रितिक रोशन, बारबरा मोरी, कंगना रणावत
संगीत : राजेश रोशन
गीत : नसीर फराज, आसिफ अली बेग
संपादन : अविक अली
वितरण : रिलायंस बिग पिक्चर
प्रेम को किसी भाषा की जरूरत नहीं होती, काइट्स की थीम यही है। निर्देशक अनुराग बसु ने अपनी बाकी फिल्मों की तरह इसमें भी अपने खास अंदाज को बरकरार रखा है। अपराध की गलियों में खिलती खूबसूरत रोमानी प्रेमकथा। फिल्म में हॉलीवुड फिल्मोंे की तरह की गति है। कई सीन निर्देशक की अद्भुत कल्पनाशीलता की बानगी हैं, विशेषकर जहां अशाब्दिक रोमांस का जादू बिखेरा गया है। कार रेसिंग और स्टंट को बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है।
डायरेक्टर: माइक निवेल
कास्ट: जेक गेलेनहाल, बेन किंग्सले, जेमा आर्टेटन, अल्फ्रेड मोलीना
बैनर : वॉल्ट डिजनी
अवधि : एक घंटा 34 मिनट
‘प्रिंस ऑफ पर्सिया : द सैंड्स टाइम’ एक्शन और एडवेंचर से भरपूर फिल्म है। फिल्म निर्देशक माइक निवेल ने इसे बनाते समय वीडियो गेम की चर्चित संसार को आधार बनाकर इसका फिल्मांकन किया है।
फिल्म आप को एक ऐसे संसार में ले जाती है जहां दो देशों का आपसी संघर्ष और समय को काबू में करने की होड़ दिखाई देती है। फिल्म के पात्रों में आपको एक तरफ बहादुर प्रिंस दास्तान (जेक गेलेनहाल) देखने को मिलता है जो जन्म से प्रिंस तो नहीं है लेकिन पर्सिया के राजा द्वारा गोद लिए जाने के कारण उसका बचपन राजकुमारों की तरह बीता है। पर्सिया के महाराजा की हत्या का आरोप भी दास्तान के ऊपर लगता है और राजा के दोनों बेटे उसके विरोधी हो जाते हैं।
दरअसल पर्सिया के राजा का असली हत्यारा राजा का खास माना जाने वाला व्यक्ति (बेन किंग्सले ) ही रहता है। उसकी इस साजिश का पर्दाफाश प्रिंस दास्तान करता है और वह उसे तानाशाह बनने से भी रोकता है ।
फिल्म एक ऐसी सैंड वॉच है जो समय को पीछे छोड़ने में सक्षम है लेकिन अगर इसके टूटने पर सारी रेत दैत्य और दानव में तब्दील हो जाती है और ये शैतान पूरे राज्य में फैलकर तबाही लाते हैं। लेकिन दूसरे देश की राजकुमारी तामीना (जेमा आर्टेटन) यहां दास्तान की मदद करती है और वे संसार को बचाने में कामयाब होते हैं। यह फिल्म बच्चों को तो बेहद पसंद आएगी, वहीं युवा वर्ग भी इसे टाइम पास फिल्म के रूप में देख सकता है।
फिल्म:मिसेज सिंह और मिस्टर मेहताकास्ट:प्रशांत नारायणन,अरुणा शील्ड्स,नावेद असलम और लूसी हसन
डायरेक्शन:प्रवेश भारद्वाज
संगीत: उस्ताद शुजात हुसैन
समय अवधि:2 घंटे
स्टार रेटिंग:1
मिसेज़ सिंह और मिस्टर मेहता फिल्म के डायरेक्टर प्रवेश भारद्वाज से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने यह फिल्म क्यों बनाई। विवाहेत्तर संबंधों(एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर)पर पहले भी सिलसिला,कभी अलविदा न कहना और मर्डर जैसी फिल्मों में कई बार दिखाया जाचुका है इसलिए फिल्म में ऐसा कुछ भी दर्शकों को आकर्षित कर सके।
फिल्म की कहानी विवाहेत्तर संबंधों(एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर)पर आधारित है। कहानी है दो शादीशुदा जोड़ों की (नीरा)अरुणा शील्ड्स की शादी (करन)नावेद असलम से हुई है और (अश्विन)प्रशांत नारायणन की शादी (सखी)लूसी हसन से हुई है। दोनों ही जोड़े अपने पार्टनर्स को धोखा देते हैं। करन (नीरा के पति) के (सखी)प्रशांत की पत्नी के साथ संबंध हैं।
यह बात नीरा को पता चल जाती है कि उसका पति उसके पीछे क्या गुल खिला रहा है। नीरा इस बात से काफी दुखी हो जाती है और सारी बात अश्विन को बता देती है|अश्विन नीरा को सहारा देता है और धीरे दोनों एक दूसरे के करीब आने लगते हैं। फिल्म के अंत तक पहुंचने पर भी यह समझ नहीं आता कि आखिर डायरेक्टर फिल्म के माध्यम से कहना क्या चाहता था।
फिल्म की बेजान पठकथा इसे बेहद बोरिंग बना देती है। साथ ही अश्विन और नीरा ऊपर फिल्माए गए न्यूड और सेक्स सींस बार बार बेवजह रिपीट किए गए हैं। बेजान स्टोरी,बेदम स्क्रीनप्ले और नीरस डायलॉग्स फिल्म को और भी ज्यादा कमज़ोर बना देते हैं। ग़ज़लों की वजह से फिल्म का संगीत मधुर लगता है|
कलाकारों की अदाकारी की बात की जाए तो सिर्फ प्रशांत नारायणन ही फिल्म में छाप छोड़ने में कामयाब नज़र आते हैं|प्रशांत की डायलॉग डिलेवरी और एक्सप्रेशंस कमाल के हैं। अरुणा शील्ड्स ने ओवर एक्टिंग की है|नावेद असलम और लूसी हसन ने अपने छोटे से रोल में ठीक ठाक अभिनय किया है।
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